महात्मा, मौलाना और चाय की प्याली

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शुभनीत कौशिक

[शुभनीत स्वाधीन के सबसे समर्पित स्तम्भ हैं। उन्होंने मौलाना आज़ाद की क़िताब गुबार-ए-ख़ातिर के बहाने से चाय के इतिहास पर एक लेख पिरो डाला है। जिसके तीन मुख्य आयाम हैं - चाय के मुनाफ़ेदार व्यापार को बढ़ाने की औपनिवेशिक कोशिशें, गाँधी की चाय को लेकर आपत्तियाँ और मौलाना आज़ाद की चाय के चुस्कियों के लिए दीवानगी। यह लेख जरूर पढ़ें....]

चाय आज हर भारतीय के रोज़मर्रा की जिंदगी का अनिवार्य और सार्वभौम पहलू है। समाज, संस्कृति, सिनेमा, साहित्य और खासकर राजनीति में भी (कभी ‘चाय पार्टियों’ तो कभी ‘चाय पर चर्चा’ के जरिए) चाय विमर्श बनाने, रणनीतियां तैयार करने और चर्चा-परिचर्चा के दौर को गरमागरम बनाए रखने में प्रमुख भूमिका अदा करती है। यह अविश्वसनीय-सा लगता है कि भारतीय समाज का सदा-सर्वदा से अभिन्न अंग प्रतीत होने वाली हम सबकी प्रिय चाय से भारतीय जनमानस का पहले-पहल परिचय औपनिवेशिक काल के आख़िरी दशकों में हुआ। इतिहासकार गौतम भद्र चाय के एक साम्राज्यवादी उत्पाद से हिंदुस्तान के ‘राष्ट्रीय पेय’ में तब्दील होने का बड़ा रोचक ब्योरा (ख़ासकर बंगाल के संदर्भ में) देते हैं।  

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चाय का एक उपनिवेशकालीन विज्ञापन 
यहाँ मेरी दिलचस्पी चाय के इस ऐतिहासिक वृत्तांत के महाआख्यान की एक उपकथा को सुनाने में है। तो ब्रिटिश राज़ के आखिरी दशकों में चाय पीना गाहे-बगाहे सामाजिक गतिशीलता का परिचायक बन चुका था। मार्च 1935 से, हिन्दी दैनिक आज के पन्नों पर भी चाय के विज्ञापन नुमाया होने लगे। ये विज्ञापन इंडियन टी मार्केट एक्सपेन्शन बोर्ड द्वारा भारत में चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए शुरू की गयी मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा थे। ख़ुद इंडियन टी मार्केट एक्सपेन्शन बोर्ड भी इसी वर्ष अस्तित्त्व में आया। इन विज्ञापनों में चाय को हिंदुस्तान का ‘सर्वोत्तम, सस्ता और शुद्धतम पेय पदार्थ’ बताया जाता था।  इन आरंभिक विज्ञापनों में में आमतौर पर एक प्याली चाय की तस्वीर होती थी, जिसके साथ इनमें से कोई एक संदेश छपा होता था: ‘हिंदुस्तान की सबसे सस्ती पीने की चीज’, ‘हिंदुस्तान की विशुद्ध पेय’, ‘हिंदुस्तान की सबसे अच्छी पीने की चीज’, ‘हिंदुस्तान की मन प्रसन्न रखने वाली चीज’। 

इन विज्ञापनों में, बहुधा, उलाहना भरे स्वर में पाठकों से कहा जाता था कि वे उतनी बार चाय नहीं पीते, जितनी की उन्हें पीनी चाहिए, और यह भी कि चाय के प्रति ‘उदासीनता’ से भारतीयों को जल्द ही निजात पा लेनी चाहिए। चाय के प्रति भारतीयों की ‘उदासीनता’ को दूर करने के लिए यह भी जोड़ा जाता कि ‘हम लोग यह महसूस नहीं करते की संसार कि अधिकांश सुगंधित चाय हमारे देश भारत में हमारे देशवासियों के श्रम से उत्पन्न होती है’।  एक दूसरे विज्ञापन में, राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य तिलक के प्रसिद्ध नारे ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ को, कुछ इस तरह पेश किया गया: ‘इस(चाय)को पीना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है’।   

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लिप्टन चाय, जो भारत की सबसे पुरानी चाय कंपनियों में एक थी, का विज्ञापन 
अक्सर विज्ञापनों में चाय पीने से होने वाले ‘फ़ायदों’ को गिनाया जाता था, खासतौर पर ‘अच्छे स्वास्थ्य और सक्रिय जीवन में चाय के योगदान’ को लेकर, और यहाँ तक कहा जाता कि ‘भारतीय चाय पीकर अपने जीवन काल को बढ़ाइए’और यह भी कि ‘दूसरे देशों में भारतीय चाय का सम्मान होता है’ क्योंकि इसकी वजह से उन देशों में जीवन-काल बढ़ गया। ‘सस्ते और ऊर्जादायी होने’ जैसे गुणों की वजह से चाय को भारतीय श्रमिकों को ताजगी देने वाले पेय के रूप में भी दिखाया गया, जो दिन भर के काम के बाद थके-हारे श्रमिकों को थकान से मुक्त कर देने वाला पेय है। पर ख़ुद चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिकों के स्थिति बदतर थी। जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में चाय बागान के श्रमिकों की दुर्दशा बताने के लिए ब्रिटिश ट्रेड यूनियन काँग्रेस के एक शिष्टमंडल की रिपोर्ट का हवाला देते हैं, जो 1928 में हिंदुस्तान आया था, जिसमें कहा गया था कि ‘असम के चाय में साल-दर-साल लाखों हिंदुस्तानियों का पसीना, भूख और निराशा शामिल होती है’।  

चाय के पक्ष में और चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए इंडियन टी मार्केट एक्सपेन्शन बोर्ड द्वारा चलाये जा रहे इस अभियान के प्रति भारतीय राष्ट्रवादी नेतृत्त्व की चिंता को गांधी ने सबसे स्पष्ट रूप में रखा। गांधी ने इस विज्ञापन मुहिम को ‘झूठे विज्ञापन’ का नमूना बताया। बंगाल और अन्य प्रान्तों में चाय पीने को लोकप्रिय बनाने के लिए चलाये जा रहे ‘प्रोपेगंडा’ पर, जिसमें ‘चाय पीओ और हमेशा जवान दिखो’ जैसे दावे किए जा रहे थे और लोगों से दिन भर में ज्यादा से ज्यादा चाय पीने को कहा जा रहा था, टिप्पणी करते हुए गांधी ने हरिजन में 24 अगस्त, 1935 को लिखा: 
चाय पीनेके पक्ष में यह विज्ञापन ऐसा एक ऐसा दावा हमारे सामने रखता है, जिसे मनुष्यके अनुभवका कहीं भी समर्थन नहीं मिलता। देखने में तो इससे उलटा ही आता है। चायके पक्षमें वकालत करनेवाले भी बहुत ही थोड़ी चाय पीनेकी सलाह देते हैं। हिंदुस्तानके लोग अगर चाय न पीएं, तो इससे उनकी कोई हानि तो होगी ही नहीं।... ऐसी-ऐसी झूठी बातें...बड़ी ही खतरनाक होती हैं। नित्य तीस-तीस प्याले चाय पी डालना – यह क्या है? इससे शरीर और दिमागमें भला ताजगी आएगी ? इससे तो पाचन-शक्ति कमजोर पड़ जाएगी और शरीर क्षीण हो जायेगा।  

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गाँधी चाय नहीं पीते थे। इस फोटो में भी वे चाय न पीकर अपना नियत नाश्ता ले रहे हैं। 
उसी लेख में गांधी ने चीनी लोगों की चाय बनने की पद्धति पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि ‘चीनी लोग—पत्तियोंको छन्नीमें रखकर उनपर खौलता हुआ पानी डालते हैं। पत्तियोंको वे चायदानीमें कभी नहीं डालते। पानीमें पत्तियों का सिर्फ रंग उतार आता है’। चीन और हिंदुस्तान में तैयार चाय की तुलना करते हुए गांधी ने लिखा कि चीनियों की चाय ‘हल्के पीले रंग की होती है हिंदुस्तान की तरह लाल रंग की नहीं’। चाय के दुष्प्रभावों के बारे में हरिजन के पाठकों को सचेत करते हुए गांधी ने आगे जोड़ा:

हलकी-सी चायके दो प्याले पी लेनेमें शायद नुकसान नहीं होता, और मनुष्य का शरीर इतनी ही चाय पचा सकता है। फिर हिंदुस्तानमें चायकी पत्तियाँ असलमें उबाली जाती हैं और इस तरह उनका सारा ‘टैनिन’ पानी में खिंच आता है। कोई भी डॉक्टर यह प्रमाणित कर देगा कि मेदे के लिए यह ‘टैनिन’ अच्छी चीज नहीं है।  

पर गांधी के उलट, राष्ट्रीय आंदोलन के एक अन्य महत्त्वपूर्ण नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद चाय के रसिक थे। उनकी रसिकता का अंदाज़ा हमें होता है उनके ख़तों से, जो उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ़्तारी के बाद जेल से लिखे थे। ये खत आज़ाद ने अपने दोस्त नवाब सद्र यार ज़ंग को अहमदनगर जेल से लिखे थे। बाद में, 1946 में किताब के शक्ल में ये ख़त गुबार-ए-ख़ातिर में प्रकाशित हुए। लगभग एक साल के दरमियान, अगस्त 1942 से सितंबर 1943, लिखे गए ये ख़त एक राष्ट्रवादी नेता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से हमें वाबस्ता कराते हैं। 

ये ख़त अकसरहा सुबह-सुबह चाय की चुसकियाँ लेते हुए लिखे गए, इसलिए इनमें गाहे-बगाहे चाय की भी चर्चा होती ही थी। अपनी पसंदीदा चाय के बारे में बताते हुए आज़ाद 17 दिसंबर 1942 को एक ख़त में लिखते हैं कि ‘एक मुद्दत से जिस चीनी चाय का आदी हूँ वो व्हाइट जेस्मिन कहलाती है यानी 'यास्मने -सफ़ेद' या ठेठ उर्दू में यूँ कहिए कि 'गोरी चंबेली'... इसकी खुशबू जिस कदर लतीफ़ है, उतना ही क़ैफ़ (नशा) तुंद-व-तेज़ है’।  वे एक जगह यह भी जोड़ते हैं कि वे ‘अफ़सुर्दगियों का चाय के गरम जामों से इलाज’ किया करते हैं और स्याही ख़त्म होने पर कलम को चाय के फ़िंजान में भी डुबो देते हैं और कहते हैं कि ‘आज कलम को भी एक घूँट पिला दिया’।

आज़ाद एक ख़त में लिखते हैं कि वे चाय के लिए रूसी फ़िंजान काम में लाते हैं। रूसी फ़िंजान की खूबियाँ गिनाते हुए, 27 अगस्त 1942 को लिखे गए इस ख़त में, वे आगे जोड़ते हैं कि ‘ये (रूसी फ़िंजान) चाय की मामूली प्यालियों से बहुत छोटे होते हैं। अगर बेज़ौकी के साथ पीजिए तो दो घूँट में खत्म हो जायें। मगर ख़ुदा न ख़ास्ता मैं ऐसी बेज़ौकी का मुर्तकिब क्यों होने लगा ? मैं जुरआ-कशाने-कुहन-मश्क (पुराने पीने वाले की तरह) ठहर-ठहरकर पीऊँगा और छोटे-छोटे घूँट लूँगा’।  अपने चाय के प्रयोगों के बारे में विस्तार से लिखते हुए, 3 अगस्त 1942 को लिखे गए, एक ख़त में आज़ाद लिखते हैं:

मैंने चाय की लताफ़त व शीरीनी को तंबाकू की तुंदी व तलख़ी  से तरकीब देकर एक कैफ़े-मुरक्कब (मिश्रित नशा) पैदा करने की कोशिश की है। मैं चाय के पहले घूंट के साथ ही मुत्तसिलन एक सिगरेट भी सुलगा लिया करता हूँ फिर इस तरकीबे-खास का नक़्शे-अमल यूँ जमाता हूँ कि थोड़े-थोड़े वक़्फे के बाद चाय का एक घूँट लूँगा और मुत्तसिलन सिगरेट का भी एक कश लेता रहूँगा...इस तरह इस सिलसिलये-अमल की हर कड़ी चाय के एक घूँट और सिगरेट के एक कश के बाहमी इम्तिजाज (आपसी मेल) से बितदरीज ढलती जाती है और सिलसिलये-कार दराज़ होता रहता है। मिक़दार के हुस्ने-तनासुब का इंज़्बात (सुमेल का ढंग) मुलाहिजा हो कि इधर फ़िंजान आखिरी जुरए (घूँट) से खाली हुआ, उधर तंबाकूये आतिशज़दा ने सिगरेट के आख़िरी खत्ते-कशीद (हद) तक पहुँचकर दम लिया।  

मौलाना आज़ाद लिखते हैं कि वे चाय को ‘सिर्फ़ चाय के लिए’ पीते हैं, जबकि ‘दूसरे दूध और शक्कर के लिए’ पीते हैं। वे तफ़सील से बताते हैं कि कैसे चाय चीन से रूस, तुर्किस्तान और ईरान में पहुंची और फिर इंग्लैण्ड तक। वे हिंदुस्तान में चाय में दूध मिलाने को हरगिज़ पसंद नहीं करते थे। और इस बुराई के लिए भी कसूरवार वे अंग्रेज़ों को ही ठहराते थे। बक़ौल मौलाना आज़ाद:

सत्रहवीं सदी में जब अंग्रेज़ इससे (चाय से) आशना हुए तो नहीं मालूम उन लोगों को क्या सूझी, उन्होंने दूध मिलाने की बिदाअत (नई बात) ईजाद की। और चूंकि हिंदुस्तान में चाय का रिवाज़ उन्हीं के जरिये हुआ इसलिए यह बिदअते-सैयअ यहाँ भी फैल गयी। रफ़्ता-रफ़्ता मुआमला यहाँ तक पहुंच गया कि लोग चाय में दूध डालने की जगह दूध में चाय डालने लगे...लोग चाय का एक तरह का सय्याल (तरल) हलवा बनाते हैं, खाने की जगह पीते हैं और खुश होते हैं की हमने चाय पी ली। इन नादानों से कौन कहे कि: हाय कमबख़्त तूने पी ही नहीं! 

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