ताकि महज औपचारिकता न रहे गणतंत्र दिवस (गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर एक टिप्पणी)

शुभनीत कौशिक 

26 जनवरी, 2016 को भारतीय राष्ट्र अपना 66वां गणतंत्र दिवस मनाएगा। विगत कई वर्षों से गणतंत्र दिवस को भारतीय राज्य, महज़ औपचारिकता की तरह निबाह रहा है और लोग इसे बस ‘नेशनल हॉलिडे’ के रूप में देखते रहे हैं। यानि छुट्टियों की लंबी-चौड़ी भारतीय सूची में एक और छुट्टी, बस इतना ही! बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में पले-बढ़े हिंदुस्तान के मानस में, क्या सचमुच गणतंत्र दिवस की कोई प्रासंगिकता रह गई है? अगर हाँ, तो वह प्रासंगिकता क्या है! और नहीं तो, आखिर क्यों हिंदुस्तान की युवा पीढ़ी के लिए महज़ ‘नेशनल हॉलिडे’, और ज्यादे-से-ज्यादे प्लास्टिक के तिरंगों तक सीमित होता जा रहा है गणतंत्र दिवस।

गणतंत्र दिवस के प्रासंगिकता के संदर्भ में ही, मैं आपको उस दस्तावेज़ की याद दिलाना चाहूँगा, जो 86 वर्ष पहले तैयार किया गया था। दस्तावेज़ का उद्देश्य था, 26 जनवरी 1930 को ‘पूर्ण स्वाधीनता दिवस’ के रूप में मनाते हुए, देश भर के गाँवों-शहरों में लोगों के सामने इसे पढ़ना। यह दस्तावेज़ एक शपथ-पत्र की तरह था, जिसका मसौदा तैयार किया था, महात्मा गांधी ने।

मैं इसी दस्तावेज़ के आईने में, आज के हिंदुस्तान की हालत का जायजा लेना चाहूँगा। इस मसौदे का पहला ही वाक्य है: “हमारा विश्वास है कि अपनी प्रगति के लिए पूरा-पूरा अवसर पाने की दृष्टि से दूसरे देशवासियों की तरह हिंदुस्तान के लोगोंको स्वाधीनता पाने, अपनी मेहनत का सुख भोगने तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है”। क्या यह वाक्य आज 2016 के हिंदुस्तान की हालत पर लागू नहीं होता। क्या हमें भी यह विश्वास नहीं जताना चाहिए कि आज़ाद हिंदुस्तान में हम अपनी मेहनत का सुख भोगना चाहते हैं, जिंदगी के लिए जरूरी चीजों को हासिल करने का अधिकार रखते हैं, जिसमें अपनी राय रखने, और अभियक्ति की आज़ादी जैसे बुनियादी अधिकार भी शामिल हैं।

यह मसौदा भले ही, एक औपनिवेशिक राज्य के संदर्भ में लिखा गया था, पर इसमें कही गई कुछ बातें सार्वभौम महत्त्व रखती हैं और आज के संदर्भ में भी लागू होती हैं। मसलन, गांधी इस मसौदे में लिखते हैं, “अगर कोई सरकार लोगों को उनके अधिकार से वंचित करती है, उनपर जुल्म करती है तो लोगों को यह भी अधिकार है कि वे उसे बदल दें या उसे समाप्त कर दें”। क्या आज हिंदुस्तानियों को इस पर विचार नहीं करना चाहिए। कभी डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। क्या हम हैं ज़िंदा क़ौम?


1930 के औपनिवेशिक भारत का हाल बयान करते हुए गांधी कहते हैं, “भारत की अंग्रेज़ सरकार ने हिंदुस्तानियों को न केवल उनकी स्वाधीनता से वंचित कर दिया है, बल्कि उसने..हिंदुस्तान को आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से तबाह कर दिया है”। वे कहते हैं कि औपनिवेशिक नीतियों की शोषक प्रवृत्ति के चलते आर्थिक दृष्टि से हिंदुस्तान तबाह हो चुका है। गाँव के उद्योग धंधे नष्टप्राय हैं और किसान बेकारी से जूझ रहे हैं। कोई नया धंधा भी नहीं है, बेकार युवकों को काम पर लगाने के लिए। यद्यपि यह मसौदा उस दौर में लिखा गया, जब दुनिया आर्थिक महामंदी से जूझ रही थी। पर आज क्या हम कमोबेश, ऐसी ही स्थिति से दो-चार नहीं हैं। किसान सूखे और अकाल का मारा हुआ और कर्ज और ब्याज से बुरी तरह दबा हुआ है; खेती में किसी को भविष्य नहीं दिखता; और पढ़े-लिखे युवक रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं।
इस गणतंत्र दिवस पर हमें एक पल के लिए ठहरकर सोचना चाहिए, कि आर्थिक पुनर्निर्माण के नाम पर “आर्थिक सुधारों” की जो नीति नब्बे के दशक में भारत सरकार ने अपनायी, क्या वह कारगर साबित हो रही है; क्या सचमुच इसने रोजगार के अवसर सृजित किए हैं, और क्या इन नीतियों ने भारत में समावेशी विकास को सुनिश्चित किया।

1930 में लिखे गए इस मसौदे में, अँग्रेजी राज़ की आयात-निर्यात कर और मुद्रा-व्यवस्था की कड़ी आलोचना की गई थी। क्या आज के हिंदुस्तान में आर्थिक नीतियों का वही जन-विरोधी चरित्र परिलक्षित नहीं होता, जहाँ हम ‘प्रोग्रेसिव टैक्स नीति” से “रिग्रेसिव टैक्स नीति” के दौर में जा रहे हैं; जहाँ एक ओर फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने में भारत सरकार इतना आगे-पीछे करती है और एक झटके में कारपोरेट टैक्स न के बराबर कर दिया जाता है; जहाँ एक ओर उत्तराधिकार की संपत्ति पर तो कोई कर नहीं लगाया जाता, पर आम हिंदुस्तानी पर तमाम अप्रत्यक्ष कर थोप दिये जाते हैं।

इस मसौदे में, गांधी आगे जोड़ते हैं कि राजनैतिक दृष्टि से “अँग्रेजी राज में हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा घटी”। हिंदुस्तानियों की सारी शासन क्षमता खत्म कर दी गई। अँग्रेजी राज में, जो राजनीतिक सुधार किए गए वे भी महज ‘दिखावे के सुधार’ ही साबित हुए, क्योंकि उन सुधारों ने जनता के हाथ में सच्ची राजनैतिक शक्ति नहीं सौंपी। क्या आज के हिंदुस्तान में जनता के हाथ में है वह ‘सच्ची राजनैतिक शक्ति’, जिसकी ओर गांधी इशारा कर रहे थे। अगर हाँ, तो क्या जनता उस राजनीतिक शक्ति का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करती है।

सांस्कृतिक दृष्टि से गांधी देखते हैं कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली के चलते शिक्षित भारतीय अपनी संस्कृति से दूर होते गए। नतीजतन, वे सभी दिखाई न पड़ने वाली जंजीरों में लिपटे हुए हैं। सब के सब बंधे हुए हैं दासता की अदृश्य बेड़ियों में । क्या आज की चौपट हो चुकी भारतीय शिक्षा व्यवस्था यह दावा कर सकती है, कि उसने शिक्षित भारतीयों को उन अदृश्य जंजीरों से मुक्त कराया है, जिससे औपनिवेशिक शासन ने हमारी मानसिकता को जकड़ दिया था।

गांधी इस मसौदे में आध्यात्मिक पक्ष की भी बात करते हैं। ध्यान रहे, आध्यात्मिक (स्प्रिचुअल) पक्ष, न कि धार्मिक पक्ष। इस आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा जरूरी समझते हैं गांधी, क्योंकि आध्यात्मिकता का यह जरूरी पक्ष, उनके स्वराज-संबंधी विचारों से भी गहरे जुड़ा हुआ है। गांधी लक्षित करते हैं कि लंबे औपनिवेशिक शासन ने हिंदुस्तानियों की ‘प्रतिरोध की भावना’ ही कुचल डाली है। बक़ौल गांधी, “हम ऐसा कुछ सोचने लगे हैं कि न तो हम अपनी रक्षा कर सकते हैं, न विदेशियों के आक्रमण का सामना कर सकते हैं”। क्या हम हिंदुस्तानी भी आज अपने को कुछ ऐसा ही असहाय, सरकार पर बुरी तरह निर्भर नहीं समझने लगे हैं। और क्या हम ये नहीं महसूस करते कि हमारी ‘प्रतिरोध की भावना कुचल डाली गई है’।

अंत में, गांधी कहते हैं कि ऐसे “राज्य के अधीन रहना हम अब ईश्वर और मानव जाति के प्रति अपराध करना समझते हैं”। वे इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि ‘स्वाधीनता हासिल करने के लिए हिंसा का तरीका सर्वाधिक कारगर तरीका नहीं है’। साथ ही, गांधी सविनय अवज्ञा की जरूरत को भी इस मसौदे में रेखांकित करते हैं।

इस 26 जनवरी को हम सब सोचें, अपने-अपने स्तर से विचार करें कि क्या कुछ सकारात्मक कदम उठा सकते हैं हम, अपने गणतंत्र की कमियों के निराकरण के लिए। कैसे हासिल करें, हम वह ‘सच्ची राजनीतिक शक्ति’। और हासिल कर भी ली तो कैसे न्यायसंगत और विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें, उस शक्ति का। क्या हम ऐसी भारतीय शिक्षा की संकल्पना कर सकते हैं, जो हरेक भारतीय को उपलब्ध हो सके, और जो यह भी सुनिश्चित करे कि शिक्षित भारतीय ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से, और जाति, धर्म, नस्ल, लिंग से जुड़े पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। हम यह भी सोचे कि कौन से कदम हमें तत्काल उठाने चाहिए, अपने भारतीय गणतंत्र के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्निर्माण के लिए। साथ ही, इस बारे में भी हम मनन करें कि वे दीर्घकालिक उपाय कौन से होंगे, जो इस दिशा में भारतीय लोकतंत्र को आगे ले जाएँगे। 

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