स्वाधीन और राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट: एक परिचय

स्वाधीन के बारे में 
'स्वाधीन' हमारी आज़ादी की लड़ाई को समर्पित है। भारत का उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन दुनिया का सबसे बड़ा जन-आन्दोलन था। यह लगभग सौ साल चला। इस दौरान उस आधुनिक देश की नींव पड़ी, जिसे भारत कहते हैं। अपने इस इतिहास के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे पुरखों ने इस देश की ख़िदमत करते हुए तमाम उसूल बनाये थे। पिछले तकरीबन चार दशकों में हम उन बुनियादी उसूलों से दूर होते गए हैं। ज़रूरत है अपनी जड़ों को फिर से ज़िन्दा करने की। हम अतीत की तरफ़ लौट नहीं जाना चाहते। हम उस दौर को फिर ज़िन्दा होते नहीं देखना चाहते। हम तो अपनी नींव मजबूत करते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं। आज के तमाम सवालों को हल करने की कुंजी हमारे इतिहास में छिपी है। हम अपना इतिहास याद रखना चाहते हैं ताकि पिछले सबक़ याद रखे जा सकें और आगे की राह बनाई जा सके। आज़ादी की लड़ाई किसी देश का अतीत नहीं होती। वह तो वर्तमान भी होती है। उसी में भविष्य के तार भी जुड़े होते हैं। यह लड़ाई सन 1947 में ख़त्म नहीं हुई थी। वो तो एक पड़ाव था, जो हासिल हुआ था। अपनी आज़ादी को बनाये रखने की लड़ाई तो हमारी और आपकी अपनी लड़ाई है। इसी राह में 'स्वाधीन' एक शुरूआती कोशिश है, जिसमें आप सभी का स्वागत है। आप भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी या समकालीन महत्त्व का कोई आलेख हमारे साथ शेयर करना चाहते हैं तो कृपया निम्न ईमेल आईडी पर प्रेषित करें...
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राष्ट्रीय आन्दोलन फ्रंट की विचारधारा और कार्यक्रम
राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट हमारी आज़ादी की लड़ाई से प्रेरित संगठन है जिसकी स्थापना 15 अगस्त 2015 को दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुयी थी। ब्रिटिश राज की गुलामी का अंत करने के लिए हमारे पुरखों ने एक अनोखा संघर्ष चलाया था। 1857 के महासंग्राम के बाद लगभग सौ साल तक अलग-अलग चरणों से गुज़रते हुए आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश ने आज़ादी का सूरज देखा था। क्या यह आज़ादी कोई हंसी-खेल में मिल गयी थी? क्या इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी साम्राज्य की बेड़ियों को उखाड़ फेंकना था? क्या आज़ादी के मिलते ही उस संघर्ष का हमारे लिए कोई मोल नहीं रह गया है? क्या 21वीं सदी में आज़ादी की लड़ाई की बात करना पिछड़ी हुयी मानसिकता का परिचायक है?

क्या यह आज़ादी हंसी-खेल में मिल गयी थी?
कोई भी महान संघर्ष बलिदान मांगता है। दुनिया में ऐसी कोई भी मिसाल नहीं होगी जब बिना त्याग और बलिदान के किसी भी कौम ने कुछ भी हासिल किया हो। हमारी आज़ादी की लड़ाई तो इस मायने में अनूठी है। इस संघर्ष में हजारों लोगों ने अपनी प्राणों की बलि दे दी। लाखों औरतों और मर्दों ने अंग्रेजी सेना और पुलिस की लाठी- गोलियों का डटकर सामना किया। बहुत बड़ी तादाद में लोगों ने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश राज की काल कोठरियों में बिता दिया। सैकड़ों युवाओं ने हँसते- हँसते फांसी के फंदे को चूम लिया और न जाने कितनों ने अपना परिवार, नौकरी और सुख-सुविधाओं को त्यागकर मातृभूमि की सेवा करना अपनी जिंदगी का उद्देश्य बनाया। यानी हमारे पुरखों ने इस लड़ाई की भारी कीमत चुकाई थी।

क्या इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी साम्राज्य की बेड़ियों को उखाड़ फेंकना था?
जाहिर है ब्रिटिश साम्राज्यवाद का जुआ अपने कन्धों से उतार फेंकना इस लड़ाई का सबसे बड़ा उद्देश्य था। लेकिन यह इस लड़ाई का इकलौता उद्देश्य नहीं था। यह लड़ाई तभी लड़ी जा सकती थी जब यह देश अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध एकजुट हो जाता। भारत हमेशा से ही एक भौगोलिक इकाई था लेकिन राजनीतिक रूप से कभी वह एक राष्ट्र नहीं बन सका था। इसलिए जरूरी था कि पूरे देश को धर्म, जाति, क्षेत्र और नस्ल की विविधता के बावजूद एक देश बनाया जाता। इसके लिए जरूरी था कि लोग खुद को सबसे पहले एक भारतीय मानें। इसलिए आज़ादी की लड़ाई के शुरूआती नेताओं ने सबसे पहला काम भारत को एक देश के रूप में जोड़ने किया।

दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य था आज़ाद भारत की एक मुकम्मल तस्वीर बनाना। यानी जब देश एकजुट होकर अंग्रेजी साम्राज्य की जकड़न से खुद को आज़ाद कर लेगा, तब वह कैसा होगा? साम्प्रदायिक झगड़ों से मुक्त, जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव से मुक्त, गरीबी- भुखमरी से मुक्त और औरतों और मर्दों के बीच ग़ैरबराबरी से मुक्त भारत का सपना हमारे नेताओं की आँखों में बसता था। इसकी रूपरेखा उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के दौरान बनाई और आज़ादी के बाद भारतीय संविधान को उसी सपने का लिखित दस्तावेज बनाया गया।

क्या आज़ादी के मिलते ही उस संघर्ष का हमारे लिए कोई मोल नहीं रह गया?
यह साफ़ है कि आज़ादी की लड़ाई का बहुत-सा काम आज़ादी मिलने के बाद भी बाकी था। अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया था लेकिन देश के अंदरूनी हालात बहुत ख़राब थे। साम्प्रदायिक झगड़ों की वजह से देश का बँटवारा हो गया था। लोग आपस में एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। हर जगह इंसानियत शर्मसार हो रही थी। इसलिए जिस सपने के साथ आज़ादी के परवाने आग से खेल रहे थे, वह पूरी तरह दांव पर लग गया था। ऐसे में देश को और टूटने और कमजोर होने से बचाना था। नेहरूजी के नेतृत्व में हमारे नेताओं ने देश को संभाला और उसे अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश की। ब्रिटेन ने भारत की धन-संपदा को डाकुओं की तरह लूटा था। खेती-बाड़ी उजड़ चुकी थी और किसान हमेशा भुखमरी के कगार पर खड़ा रहता था। उद्योग-धन्धों का गला घोंट दिया गया था ताकि ब्रिटेन में बने माल को भारत में बेचा जा सके। ऐसी हालत में अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकने की कोशिश की गयी। लेकिन हर मामले में भारत को फिर से जैसे शून्य से शुरू करना था चाहे वह अर्थव्यवस्था का मामला हो या फिर जातिवाद और साम्प्रदायिकता का। इसलिए यह काम धीरे- धीरे आगे बढ़ा और अभी भी इस दिशा में एक लम्बा सफ़र तय किया जाना बाकी है।

क्या 21वीं सदी में आज़ादी की लड़ाई की बात करना पिछड़ी हुयी मानसिकता का परिचायक है?
एक तरह से देखा जाए तो आज़ाद भारत अपने औपनिवेशिक अतीत का ही विस्तार है। आज भी हम कई मायनों में अंग्रेजी राज के दुष्प्रभावों से मुक्त नहीं हुए हैं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान हम जिन समस्याओं से जूझ रहे थे, उनमें से तमाम हमें आज भी घेरे हुए हैं जिनमें साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भेदभाव, गरीबी और पिछड़ापन प्रमुख हैं। इनमें से बहुतेरी समस्याएं हमें अंग्रेजों की गुलामी के तोहफे के तौर पर मिली हैं। इसके अलावा हमें अपने दिलो-दिमाग पर बुरी तरह हावी हो चुकी गुलाम मानसकिता से भी छुटकारा पाना है। हम भारतीय आज भी अपने समाज की जरूरतों और उसकी ज़मीनी सच्चाई के हिसाब से अपनी राह तय नहीं करते फिर चाहे वो अर्थव्यवस्था की बात हो या शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान की। हर तरफ पश्चिम से आयी उधार की सभ्यता की धूम है। हर कोई गोरा होना चाहता है; यूरोप और अमेरिका की तरह के कपड़े पहनना चाहता है और उन्हीं की तरह दिखना और बोलना चाहता है। यहाँ तक कि वहीं जाकर पढना, नौकरी करना और बसना चाहता है। इसलिए आज भी हमारे लिए अपनी आज़ादी की लड़ाई के मूल्य और आदर्श प्रासंगिक हैं। जो हममें आज़ादख्याल होने की ताकत पैदा करें ताकि हम अपनी भारतीय पहचान को पश्चिमी चश्मे से देखने के बजाय खालिस भारतीय आँखों से देख सकें।

क्या हम उस युग में लौट जाना चाहते हैं?
हरगिज नहीं। बीता हुआ कल वापस नहीं लाया जा सकता। हम इतिहास से सबक सीखते और आगे बढ़ते हैं। अतीत के पुराने सिक्के आज के युग में नहीं चलाये जा सकते। लेकिन किसी भी सभ्यता की जड़ें मजबूत होना जरूरी है जिन पर वर्तमान कायम रहे। हम न तो अतीत की गलतियों को दोहरा सकते हैं न ही उसकी उपयोगिता को भुला सकते हैं। इतिहास के साथ वर्तमान का रिश्ता परिवर्तन और निरंतरता का है। हम जरूर अपनी आज़ादी की लड़ाई से काफ़ी दूर निकल आये हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की बुनियाद यही है। हर तरह की राजनीति की एक विचारधारा होती है। बिना विचारधारा, राजनीति की बात करना बेमानी है। इसलिए हम अपनी आज़ादी की लड़ाई की विचारधारा से ऊर्जा ग्रहण करते हैं ताकि वर्तमान की समस्याओं का हल उनकी रोशनी में ढूँढा जा सके। आज़ादी की लड़ाई की विरासत के साथ हमारा रिश्ता वैसा ही है जैसा अँधेरी सुरंगों से गुजरते हुए हाथ में जलती मशाल होना।

आज़ादी की लड़ाई की विरासत क्या है और इस पर कैसे अमल करें?
यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। आज़ादी की लड़ाई की सबसे पहली विरासत है कि देश को एकजुट रहना चाहिए ताकि बाहरी ताकतें हमारी अंदरूनी कमजोरियों का फायदा न उठा सकें। इसके लिए जरूरी है कि हम धर्म और संप्रदाय के आधार पर बंटे न हों। सभी धर्मों के लोग आपस में हिल-मिल कर रहें। एक-दूसरे में फूट डालने वाली सोच की बजाय मिली-जुली संस्कृति को बढ़ावा दें और एक-दूसरे का सहयोग करें। यह मानते हुए कि गलत सोच के लोग हर मज़हब में हैं, आपस में प्यार और भाईचारे को बढ़ाने के लिए काम करें। इसी तरह, जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को ख़त्म करने की हरसंभव कोशिश की जाए। एक जाति के लोगों द्वारा दूसरी जाति के लोगों पर किये जा रहे अत्याचारों का ख़त्म होना हमारे देश की एकजुटता के लिए बहुत जरूरी है। इस मामले में हमें डॉ० अम्बेडकर के पदचिन्हों पर चलना होगा जो कहते थे—जाति का विनाश ही इस समस्या के समाधान का इकलौता रास्ता है।

जब तक समाज में हर तरह की गैर-बराबरी ख़त्म नहीं होती, देश में आपसी फूट और संघर्ष बने रहेंगे। हालांकि यह एक ऐसा लक्ष्य है जो कभी पूरा नहीं होता। इसके लिए लगातार और बिना थके काम करने की जरूरत होती है। दुःख है कि आज के समय में आम लोगों ने इस बारे में सोचना ही बंद कर दिया है। क्योंकि वे पैसे कमाने और अपने लिए नए से नए उत्पाद खरीदने की अंधी दौड़ में पड़ गए हैं। अपने ही देश के गरीबों को उन्होंने फ़िजूल की आबादी मान लिया है। वो कभी-कभार उन पर दया तो दिखा सकते हैं लेकिन उनको इस हालत से कैसे उबारा जाए इस सवाल से मुंह चुराते हैं। यही दृष्टिकोण आदिवासी भाई-बहनों के बारे में भी है। इस देश के सबसे स्वाभाविक नागरिक आज भी खराब हालात में जीने को मजबूर हैं। ऊपर से उनको उनकी जमीनों से उजाड़ा जा रहा है और स्थानीय संसाधनों पर उनके अधिकारों की अवहेलना की जा रही है।

हमें पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए देश के हर हिस्से और हर कोने के लोगों को देश की मुख्यधारा में समाहित करना होगा। उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों को कितना दुःख पहुँचता होगा जब देश के बाकी हिस्सों के लोग उन्हें नेपाली या चीनी कहकर पुकारते हैं। हमें यह समझना होगा कि यह देश बहुत बड़ा है और इसे एक बनाये रखने के लिए हम सबको उतना ही बड़ा दिल रखना चाहिए जिसमें हर कोई समा सके। इसीलिए हमारी आज़ादी की लड़ाई ने लोकतंत्र को सबसे आदर्श राज्य-व्यवस्था माना था। क्योंकि लोकतंत्र भारत की महान सभ्यता के अनुरूप है जो बातचीत और तर्क-वितर्क के आधार पर विकसित हुयी है। देश की समृद्ध विविधता को देखते हुए यह जरूरी है कि लोकतंत्र पर हमारी आस्था न डिगने पाए। कई बार लोग जरा-जरा सी बात पर कहते हैं कि इस देश को एक तानाशाह चाहिए। वो ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हें कभी तानाशाहों का शिकार नहीं बनना पड़ा। इस देश में बहस-मुबाहिसे का जितना सम्मान है, वही हमारे राष्ट्र की प्राणवायु है।

आजादी जी लड़ाई को कैसे समझें?
आजकल आज़ादी की लड़ाई और उसके नेताओं पर कीचड़ उछालने का चलन हो गया है। हर कोई खुद को सर्वज्ञ मानकर आज़ादी की लड़ाई के नेताओं के बारे में ऊटपटांग बातें फैलाया करता है। ऐसे लोग दरअसल अल्पज्ञ हैं। उन्हें या तो आज़ादी की लड़ाई का इतिहास पता नहीं होता या फिर वो कुछ छिपाने के लिए झूठ-फरेब का सहारा लेते हैं। ऐसी सैकड़ों किताबें आजकल हमारे आस-पास बिक रही हैं और कई बार मुफ़्त बांटी जा रही हैं। आज के समय में किताब छापना बहुत आसान हो गया है। इसलिए हमें ऐसी बातों को मानने से पहले यह सोचना चाहिए कि हर वो चीज़ जो किसी किताब में लिखी है या किसी समाचार चैनल पर दिखाई जा रही है, जरूरी नहीं कि सच हो। गांधीजी और नेहरुजी इस तरह की प्रवृत्ति का सबसे बड़ा निशाना हैं। क्योंकि यह दोनों नेता आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े प्रतीक हैं। इनकी छवि को धूमिल करके दरअसल पूरे आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिशें जोरों पर हैं। ऐसा सिद्ध किया जा रहा है कि व्यक्तिगत रूप से बेहद कमजोर यह लोग मिलकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नहीं बल्कि आपस में ही लड़ रहे थे। आज़ादी की लड़ाई की कई अंतर्धाराएं हैं। गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसक आन्दोलन चलाया जा रहा था जो जनभागीदारी  की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा आन्दोलन था। क्रांतिकारी धारा के लोग व्यक्तिगत हिंसक कार्यवाहियों और सशस्त्र संघर्ष के मार्फ़त ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के हिमायती थे। सुभाषचन्द्र बोस जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेता ने देश को आज़ाद कराने के लिए विदेशी मदद का सहारा लेना भी सही समझते थे। कांग्रेस के भीतर और बाहर रहकर काम करने वाले वामपंथियों के तमाम मुद्दों पर गांधीजी और कांग्रेस से मतभेद थे। यही नहीं नेहरूजी और सरदार पटेल के बीच, सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद के बीच, भगत सिंह और गांधीजी के बीच और यहाँ तक कि खुद गांधीजी और नेहरूजी के बीच भारी मतभेद थे। लेकिन उनके आपसी मतभेदों से कहीं बहुत ज्यादा वे लोग एक ही उद्देश्य के लिए काम कर रहे थे—कैसे अंग्रेजों को देश से बाहर निकाला जाए? इसके अलावा वो सभी लोग आपस में एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उदाहरण के तौर पर सारे मतभेदों के बावजूद नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने गांधीजी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कहकर पुकारा था।

देशप्रेमी होने के नाते हम क्या करें? 
सबसे पहले अपने भीतर भारतीय होने का बोध पैदा करें। खुद को आज़ादी की लड़ाई का वारिस मानकर उसके मूल्यों और आदर्शों का प्रचार-प्रसार करें। सोचें कि हम अपने देश को आज़ादी की लड़ाई की कसौटी पर कसकर कैसे बेहतर बना सकते हैं। आज़ादी की लड़ाई की विभिन्न धाराओं के दलों, आन्दोलनों और नेताओं के बीच की समानताओं पर जोर दें। देशप्रेम क्रिकेट का मैच नहीं है और न ही यह सिर्फ सीमाओं पर दिखाया जा सकता है। सीमा पर हमारे सैनिक जिस तरह देश की सीमाओं की रक्षा करते हैं उसी तरह हमारा कर्त्तव्य है कि हम देश को अन्दर से मजबूत बनाने की कोशिश करें। हमको और आपको व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए सोचना होगा। इसके लिए अपने धर्मगत और जातिगत पूर्वाग्रहों का त्याग करें. अपने धर्म की मानवतावादी व्याख्या में विश्वास करें और धर्म के नाम पर होने वाली किसी भी घृणा या हिंसा की आलोचना करें। समाज के दलित और वंचित तबकों, आदिवासियों और महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के काम में मदद करें। अथाह धन-दौलत बटोरने की दौड़ के बजाय सादगीपूर्ण, सुखी और सार्थक जीवन जीने का प्रयास करें। उपभोग करें परन्तु उपभोक्तावादी संस्कृति का अन्धानुकरण न करें ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम जीने लायक धरती सौंप सकें। हम अपने देश, समाज और पर्यावरण की रक्षा अपने लिए तो करें ही अपने बच्चों के लिए भी करें। आखिरकार हम और आपसब उन्हें अपनी दुनिया से बेहतर दुनिया बनाकर देना चाहते हैं। सेवा को अपने रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बनाकर काम करें। आखिरकार हर धर्म में सेवा तो सबसे बड़ा धर्म माना गया है. आप शुरुआत अपने आस-पड़ोस से करें। खुद को देश और समाज का का भला करने वाली सेना का सेनानी मानें और अपने इलाके में प्रेम, भाईचारे और सहयोग का माहौल बनाने में मदद करें। बच्चों और युवाओं को आज़ादी की लड़ाई के बारे में बताएँ। स्थानीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृति को संजोने का प्रयास करें और उनको याद करने के लिए आयोजन करें।

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